ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। – अथर्ववेद ११।५।११
"ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत" का शाब्दिक अर्थ:
ब्रह्मचर्य और तप से देवताओं (विद्वानों) ने मृत्यु को पराजित किया।
भूमिका:
यह वैदिक मंत्र हमें जीवन की सबसे बड़ी विजय — मृत्यु पर — आत्मसंयम और तप से प्राप्त करने की प्रेरणा देता है। अथर्ववेद का यह मंत्र आध्यात्मिक साधना, आत्मनियंत्रण और जीवनशैली की पवित्रता का दिव्य संदेश है।

ब्रह्मचर्य क्या है?
ब्रह्मचर्य का अर्थ है “ब्रह्म में विचरण” — यानी विचार, व्यवहार और वाणी में शुद्धता और संयम। यह केवल यौन संयम नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन को अनुशासित और दिव्य बनाने का मार्ग है।
- शारीरिक, मानसिक और वाचिक संयम
- उत्तम विचारों की ओर प्रवृत्ति
- ऊर्जाओं का संरक्षण और सही दिशा में उपयोग
तप क्या है?
तप का अर्थ है – धैर्य और आत्मनियंत्रण के साथ कष्ट सहना। यह शुद्धि की अग्नि है जिसमें व्यक्तित्व तपकर सोने जैसा निखरता है।
- सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सुख-दुख में समान भाव
- सत्कर्मों में निरंतर प्रवृत्ति
- अहंकार, क्रोध, लोभ जैसे विकारों का त्याग
देवों ने मृत्यु को कैसे पराजित किया?
यहाँ ‘देव’ का अर्थ प्राकृतिक देवता नहीं, बल्कि वे ऋषि, मुनि, तपस्वी हैं जिन्होंने तप और ब्रह्मचर्य से मृत्यु के भय को समाप्त कर दिया। वे अमरत्व की स्थिति में पहुंचे — यानि अमर कीर्ति, अमर विचार, अमर चेतना।
वर्तमान संदर्भ में "ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत" श्लोक की प्रासंगिकता:
आज की भौतिकतावादी जीवनशैली में ब्रह्मचर्य और तप जैसे वैदिक मूल्यों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। बच्चों, युवाओं, विद्यार्थियों और साधकों के लिए यह मंत्र चरित्र निर्माण और आत्मविकास का मार्गदर्शक है।
जीवन के लिए प्रेरणा:
“जो जीवन में ब्रह्मचर्य और तप को धारण करता है, वह मृत्यु को नहीं, मृत्यु उससे डरती है।”
निष्कर्ष:
“ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत” न केवल वैदिक मंत्र है, यह जीवन का ब्रह्मसूत्र है। सच्चे ब्रह्मचारी और तपस्वी बनें, और जीवन को अमरत्व की ओर ले जाएँ।
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