अनुव्रतः पितुः पुत्रः। – अथर्ववेद ३।३०।२
श्लोक अर्थ: "पुत्र पिता का अनुसरण करे।"
यह अथर्ववेद का अत्यंत प्रेरणादायक श्लोक है जो पारिवारिक मूल्यों और पीढ़ियों की सांस्कृतिक निरंतरता की बात करता है। इस मंत्र में “अनुव्रतः” शब्द दर्शाता है कि पुत्र को केवल शारीरिक उत्तराधिकारी ही नहीं बल्कि आचरण, धर्म, और संस्कारों का संवाहक भी होना चाहिए।

आदर्श पुत्र की विशेषताएँ:
- आज्ञाकारी: जो पिता की बातों को सम्मानपूर्वक माने।
- धर्मनिष्ठ: जो यज्ञ, सेवा, और सत्य के मार्ग पर चले।
- गौरव संवर्धक: जो कुल की प्रतिष्ठा बढ़ाए।
- कर्तव्यशील: जो परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायी हो।
पिता का अनुकरण क्यों आवश्यक?
पिता समाज, परिवार और संस्कृति की रीढ़ होते हैं। पुत्र जब उनके आदर्शों का अनुकरण करता है, तभी संस्कारों की परंपरा आगे बढ़ती है और समाज में नैतिकता बनी रहती है।
समाज को संदेश:
अगर हर पुत्र अपने पिता के सद्गुणों, सेवा-भाव और सत्कर्मों को अपनाए, तो वह न केवल परिवार बल्कि राष्ट्र के निर्माण में भी महान भूमिका निभा सकता है।
"जो पिता की प्रतिष्ठा बढ़ाए वही पुत्र कहलाने योग्य है।"
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