अनृणाः स्याम। - ऋग्वेद ६।११७।३
अर्थ:
हम किसी के ऋणी न रहें।
ऋग्वेद का यह सूक्त अत्यंत गहन और प्रेरणादायक जीवन-दर्शन प्रस्तुत करता है। "अनृणाः स्याम" – अर्थात हम पर किसी प्रकार का ऋण न रह जाए – यह केवल आर्थिक ऋण की बात नहीं करता, बल्कि जीवन में हमारे नैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक ऋणों की ओर संकेत करता है।

मानव जीवन में तीन प्रमुख ऋण
मनुष्य जन्म लेते ही तीन प्रकार के ऋणों से बँध जाता है:
- 1. देव-ऋण: अग्नि, वायु, सूर्य आदि देवताओं ने हमें जीवन-निर्वाह के आवश्यक साधन दिए हैं। उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए यज्ञ, अग्निहोत्र, उपासना के माध्यम से यह ऋण चुकाया जाता है।
- 2. ऋषि-ऋण: वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों का ज्ञान देनेवाले ऋषियों का ऋण हम वेदों का स्वाध्याय, ज्ञान का प्रचार और अनुसरण करके चुकाते हैं।
- 3. पितृ-ऋण: माता-पिता और पूर्वजों से हमें जो शरीर, संस्कार और जीवन मिला है, उसका ऋण श्रद्धा, सेवा, तर्पण, और सामाजिक उत्तरदायित्व निभाकर उतारा जाता है।
अनृण रहने के लिए क्या करें?
अनृण रहने का अर्थ है – कर्तव्यनिष्ठ और उत्तरदायित्वपूर्ण जीवन जीना:
- धार्मिक उत्तरदायित्व: नियमित रूप से देवपूजन, यज्ञ, संध्या वंदन आदि करें।
- शैक्षिक व बौद्धिक सेवा: ज्ञान प्राप्त करें और दूसरों को भी मार्ग दिखाएं।
- परिवार व समाज सेवा: माता-पिता, गुरुजनों और समाज के लिए समय और संसाधन समर्पित करें।
- नैतिकता: जीवन में सत्य, अहिंसा, संयम और दान का पालन करें।
वर्तमान सन्दर्भ में अनृणता का महत्त्व
आज का युग उपभोग और अधिकारों की बात करता है, लेकिन ऋग्वेद हमें कर्तव्य आधारित जीवन जीने की प्रेरणा देता है। जब हम केवल लेते हैं और लौटाते नहीं, तब हम ऋणी हो जाते हैं। अनृण बनकर जीना ही सच्चा मानव धर्म है।
अनृणता का अर्थ केवल मुक्त होना नहीं, बल्कि अपने योगदान से जगत् को और सुंदर बनाना भी है।
निष्कर्ष:
इस श्लोक में केवल एक पंक्ति में जीवन का सार छिपा है। "अनृणाः स्याम" – एक ऐसा लक्ष्य है, जिसे हर मनुष्य को अपनाना चाहिए। देव, ऋषि और पितरों के प्रति कृतज्ञ रहकर, अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए ही हम सच्चे अर्थों में मानव जीवन को सफल बना सकते हैं।
वेद हमें केवल ज्ञान नहीं देते, बल्कि कर्म और उत्तरदायित्व का बोध भी कराते हैं।