मा गृधः कस्य स्विद्रणम्।
- यजुर्वेद ४०।१
शाब्दिक अर्थ:
मा = मत, गृधः = लोभ कर, कस्य स्वित् धनम् = यह धन किसका है?
भावार्थ: किसी के धन का लोभ मत कर, यह धन किसका है?
व्याख्या:
यह श्लोक यजुर्वेद के अत्यंत प्रसिद्ध 40वें अध्याय से लिया गया है। यह केवल एक धार्मिक कथन नहीं, बल्कि मानव जीवन के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। यह श्लोक हमें बताता है कि लोभ, स्वार्थ और परधन की कामना करना मानवता के विनाश का कारण बन सकता है।
धन के लिए लालायित व्यक्ति न स्वयं संतुष्ट रह सकता है और न समाज के लिए उपयोगी बन सकता है। धन कभी भी किसी का स्थायी नहीं रहा – वह परिवर्तनशील है, और मृत्यु के पश्चात तो यह और भी व्यर्थ हो जाता है।
आध्यात्मिक और सामाजिक सन्देश:
- पुरुषार्थ से प्राप्त धन ही श्रेष्ठ होता है: लोभ से प्रेरित होकर जो भी कार्य किया जाता है, वह आत्मा की शुद्धता को नष्ट करता है। अपने पुरुषार्थ, श्रम और बुद्धि से अर्जित किया गया धन ही वास्तविक सुखदायक होता है।
- लोभ नरक का द्वार है: लोभ, क्रोध और काम – यह तीनों मनुष्य को पथभ्रष्ट करते हैं। लोभी व्यक्ति न ईमानदार हो सकता है, न शांतिप्रिय।
- वैराग्य का अभ्यास करें: वैदिक संस्कृति त्याग और संतुलन पर आधारित है। जरूरत से अधिक संचित करना लोभ को जन्म देता है, जो अंततः विनाश का कारण बनता है।
लालच इज्ज़त खोता है, नहीं इज्ज़त लालच मारे की।
यह लोभ चमक खो देता है, हर एक चमकते तारे की।।
निष्कर्ष:
"मा गृधः कस्य स्विद्रणम्" श्लोक हमें यह स्मरण कराता है कि जीवन में लोभ नहीं, बल्कि कर्म, पुरुषार्थ और संतोष ही सच्चा धन है। हमें दूसरों की संपत्ति की कामना न करके, अपने आत्मबल और विवेक से जीवन का निर्माण करना चाहिए।
