"अश्वस्य वारो गोशपध्यके" – आत्मबोध का वैदिक सन्देश | अथर्ववेद २०।१२१।१८

अश्वस्य वारो गोशपध्यके।

– अथर्ववेद २०।१२१।१८


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अथर्ववेद श्लोक अश्वस्य वारो गोशपघके का वैदिक चित्र

श्लोक का अर्थ:

हे आत्मन्! तू घोड़े (इन्द्रियों) पर सवार होकर भी उसके खुरों से कुचला जा रहा है।

भावार्थ एवं व्याख्या:

यह श्लोक गहन आत्मबोध और जीवन-दर्शन का प्रतीक है। इसमें ‘अश्व’ (घोड़ा) इन्द्रियों का प्रतीक है और ‘वार’ (सवार) आत्मा का। आत्मा घोड़े की सवारी करने वाला है अर्थात शरीर और इन्द्रियाँ उसकी अधीनता में हैं।

परंतु आज के मानव ने अपनी सत्ता को ही भूलकर, इन्द्रियों के सुखों में इतना उलझा लिया है कि वह स्वयं ही इन इन्द्रियों का सेवक बन गया है।

यहाँ 'गोशपघक' का अर्थ है — घोड़े के खुरों से घायल या दबा हुआ। इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा, जो स्वामी है, वह भोगों की दासता में दबा जा रहा है।

शिक्षा और सन्देश:

  • मनुष्य को अपने भीतर की शक्ति को पहचानना चाहिए।
  • हमारी आत्मा इन्द्रियों की स्वामिनी है, दासी नहीं।
  • जब आत्मा इन्द्रियों के अधीन हो जाती है, तब वह अपने ही जीवन में पीड़ा सहती है।
  • वास्तविक सुख आत्म-नियंत्रण, विवेक और संयम में है।

प्रेरणादायक उदाहरण:

जैसे कोई सेठ अपने घोड़े पर सवारी करता है, पर जब वह खुद ही घोड़े की सेवा करने लगे, तो वह सेठ न रहकर सईस बन जाता है। यही हाल उस आत्मा का है जो इन्द्रियों की सवारी करने के बजाय उनसे संचालित हो जाती है।

आधुनिक सन्दर्भ:

आज सोशल मीडिया, भौतिक सुख, नशा, वासनाओं आदि में उलझे हुए मनुष्य को यह वैदिक चेतावनी है — “जागो! पहचानो कि तुम आत्मा हो। इन्द्रियाँ तुम्हारे वाहन हैं, तुम्हारे स्वामी नहीं।”

निष्कर्ष:

अश्वस्य वारो गोशपध्यके” – यह श्लोक केवल काव्यात्मक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि आत्मबोध का प्रबल संदेश है। यह हमें जागृत करता है कि हम इन्द्रियों के नहीं, बल्कि आत्मा के अधीन चलें।

आइए, हम भी इस वैदिक ज्ञान को आत्मसात करें और आत्मा के नेतृत्व में जीवन जीने का प्रयास करें।

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