
अग्ने तन्वं जुषस्व – आत्मप्रेम का वैदिक संदेश
श्लोक:
अग्ने तन्वं जुषस्व।
(ऋग्वेद ३।१)
अनुवाद:
हे ज्ञानस्वरूप अग्नि! तू अपनी आत्मा से प्रीति कर।
"अग्ने तन्वं जुषस्व" का भावार्थ एवं विस्तृत व्याख्या:
ऋग्वेद का यह श्लोक एक अत्यंत गूढ़ आध्यात्मिक सन्देश देता है – "अग्ने तन्वं जुषस्व" अर्थात "हे अग्नि! अपनी आत्मा से प्रीति कर।" यहाँ अग्नि का तात्पर्य आत्मा रूपी तेज से है, जो शरीर में विद्यमान है।
मानव आज शरीर से प्रेम करता है, पर आत्मा को भूल गया है। दिन भर स्नान, श्रृंगार, भोजन, वस्त्र, व्यायाम – सब शरीर के लिए, परंतु आत्मा को पहचानने और उसकी ओर उन्मुख होने का समय नहीं निकालता।
शरीर नश्वर है, आत्मा अमर:
शरीर तो पंचतत्वों से बना है और नश्वर है, एक दिन नष्ट हो जाएगा। परंतु आत्मा – वह तो सनातन है, अमर है, चैतन्य है। जो शरीर को ही सब कुछ समझता है, वह आत्म-विस्मृति के अंधकार में डूबा हुआ है।
क्या करें? – आत्मप्रेम का अभ्यास करें:
- यम और नियमों का पालन करें।
- ध्यान और स्वाध्याय को अपनाएं।
- सत्य, पवित्रता और संयम का मार्ग चुनें।
- स्व-आलोचना करें और आत्मचिंतन से आत्मा को जानें।
नाशवान शरीर के लिए अमर आत्मा को मत भूलो।
जैसे अग्नि की ओर बढ़ने से प्रकाश मिलता है, वैसे आत्मा की ओर उन्मुख होने से शांति मिलती है।
समाज के लिए संदेश:
यदि व्यक्ति आत्मा को पहचान ले, तो लोभ, हिंसा, काम, क्रोध – सब समाप्त हो जाएँ। परिवार में प्रेम होगा, समाज में सहिष्णुता, और जीवन में शांति।
उपसंहार:
ऋग्वेद हमें केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान का मार्ग दिखाता है।
"अग्ने तन्वं जुषस्व" हमें याद दिलाता है कि असली प्रेम आत्मा से होना चाहिए, शरीर से नहीं।
शरीर की सेवा सीमित है, आत्मा की सेवा अमर है।
पूरा लेख पढ़ें और आत्मप्रेम के इस वैदिक संदेश को जानें:
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