यजस्व वीर – श्रेष्ठ कर्म से ही जीवन सफल होता है | ऋग्वेद २।२६।२

श्लोक: यजस्व वीर। (ऋग्वेद २।२६।२)
शब्दार्थ: यजस्व – यज्ञ कर | वीर – बाधाओं को चीरने वाला साहसी व्यक्ति।
"यजस्व वीर" श्लोक का सरल अर्थ
हे वीर! तू यज्ञ कर। अर्थात् तू परिश्रम और त्याग से युक्त श्रेष्ठ कर्म कर।
व्याख्या
"वीर" वह है जो विघ्नों और बाधाओं को चीरते हुए आगे बढ़ता है। ऋग्वेद का यह श्लोक हमें प्रेरित करता है कि हम केवल बाहरी युद्ध नहीं, बल्कि आंतरिक शत्रुओं – जैसे काम, क्रोध, लोभ – से भी लड़ें और जीवन को यज्ञमय बनाएं।
यज्ञ का वैदिक एवं आधुनिक अर्थ
- त्याग और सेवा का भाव
- निःस्वार्थ श्रेष्ठ कर्म
- समाज और आत्मा की शुद्धि
यज्ञ के लाभ
आध्यात्मिक लाभ
- आत्मा की शुद्धि
- आत्मिक ऊर्जा का संचार
वैज्ञानिक दृष्टिकोण
- अग्निहोत्र से प्रदूषण में कमी
- मानसिक तनाव में राहत
सामाजिक लाभ
- समर्पित समाज निर्माण
- परोपकार की भावना का विकास
निष्कर्ष
"यजस्व वीर" केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्म-उत्थान का मंत्र है। हम सभी को चाहिए कि हम प्रतिदिन एक यज्ञ करें – भले ही वह सेवा का हो, सत्कर्म का हो या आत्मचिंतन का। यही जीवन की सच्ची पूजा है।
लेबल: ऋग्वेद, वैदिक श्लोक, यज्ञ का महत्व, श्रेष्ठ कर्म, Ek Nayi Soch