शिवो भूः। – ऋग्वेद ७।१९।१०
श्लोक:
शिवो भूः।
संक्षिप्त अनुवाद:
हे आत्मन्! तू शिव अर्थात कल्याणकारी बन।
"शिवो भू:" श्लोक की गहराई से व्याख्या:
ऋग्वेद का यह सूक्त मानवीय जीवन के उस आदर्श की बात करता है, जिसमें व्यक्ति केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि के लिए मंगलकारी बनता है। "शिव" का अर्थ है—कल्याण, मंगल, शुभता। "शिवो भूः" एक आज्ञा है—कल्याणकारी बनो!
इस वैदिक संदेश में हमसे अपेक्षा की गई है कि:
- हम केवल मानवों के लिए नहीं, पशु-पक्षियों, प्रकृति, जल, वायु और सम्पूर्ण जीव सृष्टि के लिए हितकारी बनें।
- हम हिंसा, नशा, मांसाहार जैसे क्रियाकलापों से दूर रहकर सात्विक, शांतिपूर्ण जीवन जियें।
- हम समाज में करुणा, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता के बीज बोयें।
मांसाहार और नशा—मानवता के विरोध में:
ऋग्वेदिक विचारधारा के अनुसार किसी भी जीव की हिंसा, चाहे वह भोजन के लिए हो या स्वाद के लिए, एक प्रकार की अमानवता है। जब हम मांस खाते हैं, तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिंसा में भागी बनते हैं।
उसी प्रकार, मादक द्रव्य—जैसे शराब, गांजा, भांग, चरस, हुक्का, सिगरेट आदि—न केवल हमारे शरीर को बल्कि हमारी चेतना, निर्णय क्षमता और सामाजिक जीवन को भी नष्ट करते हैं।
"शिवो भूः" का वास्तविक आचरण तभी संभव है जब हम आत्मानुशासन के साथ संयमित जीवन अपनाएँ।
आज के संदर्भ में श्लोक की प्रासंगिकता:
आज जब मनुष्य स्वार्थ, हिंसा और प्रकृति के शोषण की ओर बढ़ रहा है, यह श्लोक एक जागृति का बिगुल है। हमें याद दिलाया जा रहा है कि हम सृष्टि के रक्षक हैं, भक्षक नहीं।
आपके द्वारा उठाए गए हर छोटे कदम—जैसे किसी प्यासे पशु को पानी देना, किसी भूखे को भोजन देना, किसी बच्चे को शिक्षित करना—यह सब आपको ‘शिव’ अर्थात ‘कल्याणकारी’ बनाते हैं।
निष्कर्ष:
ऋग्वेद के इस अल्प लेकिन गंभीर श्लोक "शिवो भूः" में जीवन का महान आदर्श समाया है।
यह केवल एक वैदिक मंत्र नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक दिशा है—
- प्रेम करें
- सहायता करें
- हिंसा से दूर रहें
- और समाज, राष्ट्र, तथा समस्त सृष्टि के लिए कल्याणकारी बनें।
हे मानव! स्वयं को पहचान, अपने भीतर के 'शिव' को जागृत कर और एक प्रेरणा बन।