स्वे क्षेत्रे अनमीवा वि राज – अपने शरीर में नीरोग रहो | अथर्ववेद का स्वास्थ्य मंत्र

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अपने शरीर में नीरोग होकर रहने की प्रेरणा वाला श्लोक - 

स्वे क्षेत्रे अनमीवा वि राज।


"स्वे क्षेत्रे अनमीवा वि राज" - श्लोक का अर्थ- 

अपने शरीर में नीरोग होकर रहो


"अपने शरीर में नीरोग होकर रहो": अथर्ववेद से समग्र स्वास्थ्य का रहस्य

अथर्ववेद का एक अत्यंत प्रेरणादायक मंत्र है: "स्वे क्षेत्रे अनमीवा वि राज।" (अथर्ववेद ११.१.२२) इसका सीधा और गहरा अर्थ है: "अपने शरीर में नीरोग होकर रहो।" यह केवल शारीरिक स्वास्थ्य की कामना नहीं, बल्कि एक ऐसे समग्र जीवन की परिकल्पना है जहाँ व्यक्ति तीनों प्रकार के कष्टों – दैहिक, दैविक और भौतिक – से मुक्त होकर पूर्णतः स्वस्थ, आनंदित और शक्तिशाली जीवन जी सके। यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमारा शरीर हमारा 'क्षेत्र' है, हमारा अपना साम्राज्य, जिसे हमें स्वयं ही नीरोग और समृद्ध रखना है।

"स्वस्थ शरीर में दिव्यता का वास – अथर्ववेद संदेश"


शरीर: दिव्य भावनाओं और उच्च संकल्पों का क्षेत्र

यह मंत्र हमें सबसे पहले अपने शरीर को दिव्य भावनाओं, उच्च संकल्पों और दिव्य कर्मों से नीरोग बनाने पर जोर देता है। यह दर्शाता है कि स्वास्थ्य केवल शारीरिक अवस्था नहीं, बल्कि मन, बुद्धि और आत्मा के सामंजस्य का परिणाम है।

  • दिव्य भावनाएँ: सकारात्मक विचार, प्रेम, करुणा, कृतज्ञता और संतोष जैसी भावनाएँ हमारे मन को शांत रखती हैं और तनाव को कम करती हैं। मानसिक शांति सीधे तौर पर शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, क्योंकि तनाव कई बीमारियों का मूल कारण है। जब मन प्रसन्न होता है, तो शरीर में भी सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
  • उच्च संकल्प: जीवन में स्पष्ट और ऊँचे लक्ष्य रखना, अनुशासन का पालन करना और अपने वादों पर अटल रहना हमें मानसिक रूप से मजबूत बनाता है। दृढ़ संकल्प हमें चुनौतियों का सामना करने और स्वस्थ आदतों को बनाए रखने की शक्ति देता है, जैसे कि नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार।
  • दिव्य कर्म: निस्वार्थ सेवा, ईमानदारी, और नैतिक आचरण जैसे कर्म न केवल हमारे आसपास सकारात्मक वातावरण बनाते हैं, बल्कि हमारी अंतरात्मा को भी शुद्ध करते हैं। जब हम अच्छे कर्म करते हैं, तो हमें आंतरिक सुख और संतोष मिलता है, जो समग्र स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

यह त्रि-आयामी दृष्टिकोण – भावनाएँ, संकल्प और कर्म – हमें अपने शरीर को एक ऐसे उपजाऊ क्षेत्र में बदलने में मदद करता है जहाँ बीमारी और दुर्बलता के लिए कोई स्थान न हो।


तीनों तापों से मुक्ति: समग्र कल्याण की ओर

अथर्ववेद का यह मंत्र हमें तीनों प्रकार के संतापों (कष्टों) से मुक्ति की बात करता है, ताकि हम सदा नीरोग, स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ रह सकें:


1. दैहिक ताप (शारीरिक, इंद्रिय और मानसिक कष्ट)

यह वो कष्ट हैं जो सीधे हमारे अपने शरीर, इंद्रियों और मन से उत्पन्न होते हैं।

  • शरीर: इसमें रोग, बीमारियाँ, चोटें, और शारीरिक असुविधाएँ शामिल हैं जो गलत खानपान, अनियमित जीवनशैली या संक्रमण के कारण होती हैं।
  • इंद्रिय: इंद्रियों का अत्यधिक या गलत उपयोग भी कष्ट देता है, जैसे अत्यधिक देखना, सुनना या स्वाद लेना, जिससे इंद्रियों की शक्ति कमजोर होती है।
  • मन: चिंता, भय, क्रोध, ईर्ष्या, तनाव और डिप्रेशन जैसे मानसिक विकार दैहिक ताप के सबसे बड़े स्रोत हैं। मन का अशांत होना पूरे शरीर को प्रभावित करता है।

इस प्रकार के तापों से मुक्ति के लिए हमें अपनी जीवनशैली को नियंत्रित करना, पौष्टिक भोजन लेना, नियमित व्यायाम करना और मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना आवश्यक है।


2. दैविक ताप (दैवी प्रकोप)

ये ऐसे कष्ट हैं जो प्राकृतिक या अदृश्य शक्तियों द्वारा उत्पन्न माने जाते हैं, जिन पर हमारा सीधा नियंत्रण नहीं होता।

  • अतिवृष्टि (बाढ़) और अनावृष्टि (सूखा): अत्यधिक वर्षा या वर्षा की कमी से फसलें बर्बाद होती हैं, जिससे खाद्य संकट पैदा होता है।
  • महामारी: संक्रामक रोग जो बड़े पैमाने पर फैलते हैं और जनजीवन को प्रभावित करते हैं (जैसे वर्तमान में हमने अनुभव किया)।
  • भूकंप, तूफान आदि प्राकृतिक आपदाएँ: ये बड़े पैमाने पर विनाश और पीड़ा का कारण बनती हैं।

यद्यपि इन पर हमारा सीधा नियंत्रण नहीं होता, फिर भी हम अपनी तैयारी, सामूहिक जागरूकता और पर्यावरण के प्रति सम्मान के माध्यम से इनके प्रभावों को कम कर सकते हैं।


3. भौतिक ताप (अन्य प्राणियों से प्राप्त होने वाले दुःख)

ये वो कष्ट हैं जो दूसरे जीवित प्राणियों से प्राप्त होते हैं, चाहे वे मनुष्य हों या पशु।

  • पशुओं द्वारा हानि: जैसे गाय-भैंस द्वारा सींग मार देना, साँप का डसना, बिच्छू का काटना आदि।
  • मानवीय संघर्ष: इसमें मनुष्यों द्वारा एक-दूसरे को पहुँचाया गया शारीरिक या मानसिक कष्ट, जैसे हिंसा, शोषण, धोखा या शत्रुता शामिल है।

इन तापों से बचने के लिए सतर्कता, सुरक्षा के उपाय और दूसरों के प्रति मैत्रीपूर्ण व्यवहार आवश्यक है।


नीरोग, स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ रहने का संकल्प

अथर्ववेद का यह मंत्र हमें केवल बीमारियों से मुक्त रहने की बात नहीं करता, बल्कि एक सक्रिय और सशक्त जीवन जीने का आह्वान करता है। नीरोग, स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ रहने का अर्थ है:


  • नीरोग (Disease-free): किसी भी प्रकार की बीमारी से मुक्त होना।
  • स्वस्थ (Well-being): शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से ठीक महसूस करना। यह सिर्फ बीमारी की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि पूर्ण कल्याण की स्थिति है।
  • हृष्ट-पुष्ट (Vigorous/Prosperous): शारीरिक रूप से सुदृढ़, जिसका अर्थ है अच्छी तरह से पोषित और जीवंत होना। यह हमें दैनिक कार्यों को ऊर्जा के साथ करने की क्षमता देता है।
  • बलिष्ठ (Strong/Powerful): आंतरिक और बाहरी शक्ति से परिपूर्ण होना, चुनौतियों का सामना करने और जीवन में दृढ़ता से खड़े होने की क्षमता।

निष्कर्ष: अपने भीतर ही स्वर्ग का निर्माण

"स्वे क्षेत्रे अनमीवा वि राज।" यह श्लोक हमें एक गहन सत्य सिखाता है: हमारे अपने शरीर के भीतर ही स्वास्थ्य, शांति और शक्ति का साम्राज्य निहित है। यह हमारा कर्तव्य है कि हम इसे दिव्य भावनाओं, उच्च संकल्पों और अच्छे कर्मों से पोषित करें। जब हम दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से स्वयं को बचाते हुए अपने शरीर को नीरोग, स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ बनाते हैं, तो हम वास्तव में अपने भीतर ही स्वर्ग का निर्माण करते हैं। यह अथर्ववेद का एक शाश्वत संदेश है जो हमें आत्म-निर्भरता, समग्र कल्याण और एक आनंदपूर्ण जीवन की ओर ले जाता है।

यह मंत्र हमें प्रेरित करता है कि हम अपने स्वास्थ्य की जिम्मेदारी स्वयं लें और यह समझें कि हमारा शरीर न केवल एक भौतिक इकाई है, बल्कि हमारी आत्मा के विकास और परमात्मा के अनुभव का साधन भी है। तो आइए, हम सभी इस वैदिक संदेश को अपने जीवन में उतारें और अपने 'क्षेत्र' को आरोग्य और आनंद से परिपूर्ण करें।

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