अग्ने तौलस्य प्राशन - तोलकर भोजन की वैदिक प्रेरणा | अथर्ववेद १।७।२ का अर्थ, भाव और संदेश

🔶 अथर्ववेद का मितभाषी और निरोगी बनने की प्रेरणा वाला श्लोक:

अग्ने तौलस्य प्राशन।

– अथर्ववेद ०१।७।२


🔶 "अग्ने तौलस्य प्राशन" श्लोक का अर्थ:

हे आत्मान! भोजन हमेशा तोलकर अर्थात संतुलित मात्रा में करो।

 

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"हे जीवात्मन! तोलकर भोजन किया कर": अथर्ववेद से स्वस्थ जीवन का मंत्र

अथर्ववेद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण श्लोक, "अग्ने तौलस्य प्राशन। (अथर्ववेद १.७.२)", हमें एक साधारण लेकिन गहरा संदेश देता है: "हे जीवात्मन! तोलकर भोजन किया कर।" यह केवल आहार संबंधी सलाह नहीं है, बल्कि एक समग्र जीवनशैली का सूत्र है जो शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमारा शरीर मात्र एक भौतिक इकाई नहीं, बल्कि हमारी आत्मा का मंदिर है, जिसकी पवित्रता और शक्ति हमारे भोजन और जीवनशैली पर निर्भर करती है।

अग्ने तौलस्य प्राशन - मित भोजन का वैदिक संदेश

शरीर: आत्मा का वास्तविक मंदिर

हम अक्सर परमात्मा की खोज में बाहरी मंदिरों, मूर्तियों और तीर्थों में भटकते हैं। लेकिन अथर्ववेद स्पष्ट करता है कि प्रभु का दर्शन ईंट-पत्थरों के मंदिरों में न तो कभी हुआ है और न ही होगा। यह एक शाश्वत सत्य है कि आत्मा और परमात्मा दोनों का निवास हमारे हृदय-मंदिर में है, और इसलिए सच्चा दर्शन भी वहीं होगा। यह विचार हमें अपने भीतर झाँकने और यह समझने के लिए प्रेरित करता है कि हमारी आध्यात्मिक यात्रा का केंद्र कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे अपने अस्तित्व के भीतर है।

यदि हमारा शरीर ही हमारी आत्मा का मंदिर है, तो इसकी देखभाल करना, इसे नीरोग और सबल बनाए रखना हमारा परम कर्तव्य है। एक अस्वस्थ शरीर न केवल हमें शारीरिक पीड़ा देता है, बल्कि हमारी आध्यात्मिक साधना और मानसिक शांति में भी बाधा डालता है।


स्वस्थ रहने का आधार: मित भोजन और सही जीवनशैली

स्वस्थ रहने का सबसे पहला और महत्वपूर्ण नियम है "तोलकर भोजन करना" या "मित भोजन" करना। इसका अर्थ है सन्तुलित और संयमित आहार लेना।

  • संयम ही कुंजी: "ठूँस-ठूँसकर न खाएँ" - यह चेतावनी हमें अत्यधिक भोजन से बचने के लिए है, जो अक्सर अपच, सुस्ती और विभिन्न बीमारियों का कारण बनता है। अत्यधिक भोजन करने से शरीर पर अनावश्यक बोझ पड़ता है, जिससे उसकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है।
  • "हम जीने के लिए खाएँ, खाने के लिए न जीएँ।": यह एक प्रसिद्ध और गहरा विचार है जो हमारे भोजन के प्रति दृष्टिकोण को परिभाषित करता है। भोजन हमारे अस्तित्व को बनाए रखने, ऊर्जा प्रदान करने और शरीर को पोषण देने का साधन है, न कि जीवन का एकमात्र उद्देश्य। जब हम "खाने के लिए जीते हैं", तो हमारी प्राथमिकताएं बिगड़ जाती हैं और हम अक्सर स्वाद के पीछे स्वास्थ्य को अनदेखा कर देते हैं।

मित भोजन का अभ्यास न केवल हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ रखता है, बल्कि मानसिक स्पष्टता और ऊर्जा भी प्रदान करता है। जब पाचन तंत्र ठीक से काम करता है, तो शरीर हल्का महसूस होता है और मन अधिक एकाग्र होता है। यह हमें दैनिक कार्यों में अधिक उत्पादक बनाता है और आध्यात्मिक अभ्यासों के लिए भी अनुकूल वातावरण तैयार करता है।


अथर्ववेद का दूरदर्शी विज्ञान: आधुनिक स्वास्थ्य से जुड़ाव

अथर्ववेद का यह श्लोक आधुनिक पोषण विज्ञान और स्वास्थ्य सिद्धांतों के साथ अद्भुत रूप से मेल खाता है। आज भी डॉक्टर और पोषण विशेषज्ञ सन्तुलित आहार, हिस्से पर नियंत्रण (portion control) और माइंडफुल ईटिंग (mindful eating) पर जोर देते हैं।

  • अति हर चीज़ की बुरी है: चाहे वह भोजन हो, काम हो या कोई और गतिविधि, अति से हमेशा नकारात्मक परिणाम ही मिलते हैं। भोजन के संदर्भ में, यह सीधे तौर पर बीमारियों और ऊर्जा की कमी से जुड़ा है।
  • शरीर की सुनें: "तोलकर भोजन" करने का एक अर्थ यह भी है कि हम अपने शरीर की ज़रूरतों को समझें। शरीर को जितना जरूरी है, उतना ही खाएँ, जब जरुरत जितना हो गया, तो रुक जाए। । यह आंतरिक संकेतों को समझने की कला है।
  • ऊर्जा और ओजस का संरक्षण: आयुर्वेद के अनुसार, मित भोजन शरीर में "ओजस" (जीवन शक्ति) को बनाए रखने में मदद करता है, जो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली और समग्र कल्याण के लिए आवश्यक है।

निष्कर्ष: स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा का वास

अथर्ववेद का यह सरल लेकिन गहन मंत्र हमें एक पूर्ण और सार्थक जीवन जीने का मार्ग दिखाता है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारा शरीर सिर्फ एक भौतिक ढाँचा नहीं है, बल्कि हमारी आत्मा का मंदिर है, जिसका सम्मान और पोषण अत्यंत महत्वपूर्ण है। "तोलकर भोजन करना" और "जीने के लिए खाना, खाने के लिए न जीना" जैसे सिद्धांत हमें न केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ और शक्तिशाली बनाते हैं, बल्कि हमें अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए भी तैयार करते हैं।

जब हमारा शरीर निरोगी और सबल होता है, तभी हमारा मन शांत होता है, और तभी हम अपने भीतर स्थित परमात्मा के करीब पहुँच पाते हैं। यह श्लोक हमें अपनी जीवनशैली के प्रति सचेत रहने, संयम बरतने और अपने शरीर को उस दिव्य निवास के रूप में देखने के लिए प्रेरित करता है, जिसका वह वास्तव में हकदार है। तो आइए, इस प्राचीन ज्ञान को अपनाएं और एक स्वस्थ, संतुलित और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध जीवन की ओर कदम बढ़ाएं।

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