"ईजानाः स्वगँ यन्ति लोकम्": अथर्ववेद का यज्ञ-मंत्र - शुभ कर्मों से स्वर्ग और परम आनंद की यात्रा
ईजानाः स्वगँ यन्ति लोकम्।
- अथर्ववेद १८।४।२भावार्थ: यज्ञ करनेवाले स्वर्ग को जाते हैं। जीवन में सुख-शांति और आनंद पाते हैं।
अथर्ववेद का एक अत्यंत profound (गहरा) और प्रेरणादायक मंत्र है: "ईजानाः स्वगँ यन्ति लोकम्।" इसका सीधा और हृदयस्पर्शी अर्थ है: "यज्ञ करनेवाले स्वर्ग को जाते हैं। जीवन में सुख-शांति और आनंद पाते हैं।" यह मंत्र हमें केवल किसी धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं रखता, बल्कि 'यज्ञ' की अवधारणा को एक व्यापक, जीवन-परिवर्तनकारी सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत करता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में सच्चा सुख, शांति और आनंद बाहरी परिस्थितियों में नहीं, बल्कि शुभ कर्मों, परोपकार और अपने कर्तव्यों के निष्पादन में निहित है।
(toc) #title=(Table of Content)
जीवन का उद्देश्य यज्ञ:- शरीर मिला है यज्ञ के लिए
अथर्ववेद हमें बताता है कि यह मनुष्य शरीर हमें केवल उपभोग या स्वार्थ के लिए नहीं मिला है, बल्कि यज्ञ, अग्निहोत्र, शुभकर्म तथा परोपकार करने के लिए मिला है। 'यज्ञ' शब्द का अर्थ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं है, बल्कि 'यज' धातु से बना है, जिसका अर्थ है देवपूजा, संगतिकरण (मिलकर काम करना) और दान। यह जीवन के हर पहलू में निस्वार्थ भाव, समर्पण और श्रेष्ठता को समाहित करने का आह्वान है।
- अग्निहोत्र: वैदिक परंपरा में अग्निहोत्र एक महत्वपूर्ण कर्म है, जिसमें विशेष मंत्रों के साथ अग्नि में आहुति दी जाती है। यह केवल एक कर्मकांड नहीं है, बल्कि इसके गहरे वैज्ञानिक और पर्यावरणीय लाभ भी हैं। जैसा कि मंत्र में कहा गया है: "अग्निहोत्र करो, इससे प्रदूषण दूर होकर उत्तम वृष्टि होगी, उत्तम वृष्टि से उत्तम अन्न प्राप्त होगा, उत्तम अन्न के सेवन से शरीर हृष्ट-पुष्ट और नीरोग बनेगा, नीरोग शरीर से सुख, शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होगी।"
- पर्यावरणीय शुद्धिकरण: अग्निहोत्र में जलाई जाने वाली औषधीय सामग्रियां वायुमंडल को शुद्ध करती हैं, विषाणुओं और जीवाणुओं को नष्ट करती हैं, जिससे वातावरण शुद्ध होता है।
- मौसम पर प्रभाव: वैदिक काल से यह माना जाता रहा है कि यज्ञ के धूम्र और ऊर्जा बादलों के निर्माण और उत्तम वर्षा में सहायक होती है, जिससे कृषि उपज बढ़ती है।
- स्वास्थ्य और पोषण: उत्तम वर्षा से उत्पन्न उत्तम अन्न हमारे शरीर को आवश्यक पोषण देता है, जिससे वह हृष्ट-पुष्ट और नीरोग बनता है। एक स्वस्थ शरीर ही हमें जीवन का पूर्ण आनंद लेने में सक्षम बनाता है।
'स्वर्ग' की सच्ची अवधारणा:- भौतिक से परे आध्यात्मिक आनंद
मंत्र कहता है कि "यज्ञ करनेवाले स्वर्ग को जाते हैं।" यहाँ 'स्वर्ग' का अर्थ केवल मृत्यु के बाद मिलने वाला कोई लोक नहीं है। वैदिक दर्शन में स्वर्ग को अक्सर सुख, शांति और आनंद की वह अवस्था माना जाता है जिसे हम इसी जीवन में, अपने शुभ कर्मों के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं, और मृत्यु के बाद भी अति आनंद की अनुभूति होती है।
- सुख, शांति और आनंद की प्राप्ति: जब हमारा शरीर नीरोग होता है, हमारा मन संतुलित होता है, और हम दूसरों के लिए अच्छा करते हैं, तो हमें एक अद्वितीय आंतरिक शांति और आनंद की अनुभूति होती है। यह वह स्वर्ग है जिसे हम अपनी आँखों से देख सकते हैं, अपने हृदय में महसूस कर सकते हैं।
- कर्मफल का सिद्धांत: यज्ञ का सिद्धांत कर्मफल के सिद्धांत से जुड़ा है। जैसे हम बोते हैं, वैसे ही काटते हैं। शुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से शुभ होता है, जो हमें इस लोक में ही सुख और शांति के रूप में मिलता है।
शुभ कर्म और परोपकार:- आत्मा का अलौकिक उल्लास
मंत्र का सबसे महत्वपूर्ण संदेश शुभ कर्म और परोपकार में निहित है। ये ही सच्चे यज्ञ हैं जो हमारी आत्मा को पोषित करते हैं।
- परोपकार का महत्व: दूसरों की निस्वार्थ सेवा करना, जरूरतमंदों की मदद करना, समाज के लिए कुछ सकारात्मक योगदान देना ही परोपकार है। जब हम दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं, तो हम अपने अहंकार को कम करते हैं और एक व्यापक चेतना से जुड़ते हैं।
- आत्मा का अलौकिक आनंद: अथर्ववेद कहता है कि "यज्ञ=शुभ कर्म और परोपकार से आत्मा अलौकिक आनंद से झूम उठता है।" यह आनंद भौतिक सुखों से प्राप्त होने वाले क्षणिक आनंद से कहीं अधिक गहरा और स्थायी होता है। यह एक दिव्य, आत्मिक संतोष है जो भीतर से आता है, जो हमें वास्तविक खुशी और जीवन में पूर्णता का अनुभव कराता है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति स्वयं को ब्रह्मांड के एक बड़े हिस्से के रूप में महसूस करता है, और उसका अस्तित्व अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है।
- सामाजिक समरसता: जब हर व्यक्ति शुभ कर्मों और परोपकार में संलग्न होता है, तो समाज में समरसता, प्रेम और सहयोग का वातावरण बनता है। यह एक सामूहिक 'यज्ञ' है जो पूरे समुदाय के लिए स्वर्ग का निर्माण करता है।
निष्कर्ष:- जीवन ही एक महान यज्ञ है
अथर्ववेद का यह मंत्र "ईजानाः स्वगँ यन्ति लोकम्" हमें एक समग्र और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन एक सतत यज्ञ है, जहाँ हर शुभ कर्म, हर निस्वार्थ भाव, और हर परोपकारी कार्य एक आहुति के समान है। यह आहुतियाँ न केवल हमारे शारीरिक स्वास्थ्य (प्रदूषण दूर करना, उत्तम अन्न, नीरोग शरीर) को सुनिश्चित करती हैं, बल्कि हमें मानसिक शांति और अलौकिक आध्यात्मिक आनंद भी प्रदान करती हैं।
यह श्लोक हमें याद दिलाता है कि सच्चा 'स्वर्ग' कहीं दूर नहीं, बल्कि हमारे ही कर्मों में, हमारी ही आत्मा के भीतर निहित है। तो आइए, हम इस प्राचीन वैदिक ज्ञान को अपने जीवन में उतारें, अपने प्रत्येक कार्य को एक 'यज्ञ' मानकर करें, और शुभ कर्मों तथा परोपकार के माध्यम से अपने जीवन को सुख, शांति और आनंद से परिपूर्ण करें। यही मानव जीवन का ultimate goal है – इस लोक में ही 'स्वर्ग' का अनुभव करना।
